16 जनवरी 2011

इस लिए खामोश हूँ




क्योंकि मैं निर्दोष हूँ 
इस लिए खामोश हूँ
झूठ के भाषण बहुत
इस लिए खामोश हूँ
होश से मस्ती भली 
इस लिए मदहोश हूँ 
इस दौर में ज़िन्दां हूँ
मैं तो सरफरोश हूँ 
सड़क का पत्थर न समझ
भीड़ का आक्रोश हूँ

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर ...... आखिरी दो पंक्तियाँ तो मन को उद्वेलित करने वाली हैं......

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  2. भीड़ का आक्रोश हूँ मैं ....बहुत अच्छे लगे ये भाव !

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  3. डॉ॰ मोनिका शर्मा,
    ZEAL,
    आपकी टिप्पणियाँ मुझे बहुत प्रोत्साहित कर रही हैं.धन्यवाद .

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  4. झूठ के भाषण बहुत
    इसलिए खामोश हूँ ...
    रहिये खामोश मगर लिखते रहिये !

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  5. क्या बात लिख दी !
    बहुत अच्छी पंक्तियां !
    मन को छूती है रचना !

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  6. भीड़ का आक्रोश........
    इस उन्माद को दिशा की आस है.

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  7. छोटी सी कविता में बहुत सारी बातें कह दीं आपने....ये दस पंक्तियाँ ख़ामोश मन का विद्रोह बड़े अच्छे से कह जा रही हैं....

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  8. "झूठ के भाषण बहुत
    इस लिए खामोश हूँ"

    झूठ बोले जोर से
    मैं इसलिए खामोश हूँ

    भलाई भी इसी में है..

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मंजिल न दे ,चिराग न दे , हौसला तो दे.
तिनके का ही सही, मगर आसरा तो दे.
मैंने ये कब कहा कि मेरे हक में हो जबाब
लेकिन खामोश क्यों है कोई फैसला तो दे.