दुनिया दौड़ी चली जाती क्यों है,
हर तरफ़ है ग़मज़दा चेहरे,
मुझको हंसी आती क्यों है,
किनारे पे खड़े हुए हैं सब,
मैं डूबना चाहता क्योंकर,
हर कोई जुड़ने को बेकरार,
मैं टूटना चाहता क्योंकर,
पुती दीवारें हैं हर तरफ़,
मैं खाली झरोखा क्यों हूँ,
सभी तकते हैं जमीं को,
मैं आसमां तकता क्यों हूँ,
कोई खरीदार नहीं है,
फिर भी मैं बिकता क्यों हूँ,
जब सिर्फ़ पढ़ते हैं ज़ेहन वाले,
मैं दिल से लिखता क्यों हूँ,
तमाशबीनों की भीड़ में ,
मैं ही तमाशा क्यों हूँ,
मुर्दा हुए लोगों की बस्ती में,
आज तल्क ज़िंदा क्यों हूँ.
प्रिय विशाल जी
जवाब देंहटाएंहार्दिक अभिवादन -बहुत ही सुन्दर जज्बात
बहुत बढ़िया और अनूठा ख्याल लाजबाब प्रस्तुति
.............आभार आप का
अस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
जवाब देंहटाएंआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
अक्सर ये पागल सवालात हर अच्छे इंसान के मन में आते है
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना विशाल भाई बधाई
हर तरफ़ है ग़मज़दा चेहरे,
जवाब देंहटाएंमुझको हंसी आती क्यों है,
Bahut khoobsoorat, badhai.
तमाशबीनों की भीड़ में ,
जवाब देंहटाएंमैं ही तमाशा क्यों हूँ,
मुर्दा हुए लोगों की बस्ती में,
आज तल्क ज़िंदा क्यों हूँ.
सही कहा आपने विशाल,यह दुनिया मुर्दा लोगो की ही बस्ती हैं ...पर हमे इनके साथ ही जीवन गुजारना हैं ...मजबूरी हैं ?
विशाल भाई अब क्या कहूँ
जवाब देंहटाएंआज तल्क तो जिन्दा हूँ
कोई जेहन नहीं मेरे पास
फिर भी पढता हूँ.
क्यूंकि आप दिल से लिखते हैं
दिल के हाथों मैं भी मजबूर हूँ.
पास आने कि कोशिश में हूँ
लगता है अभी भी दूर हूँ.
....इसलिए विशाल भाई कि आप शायराना तबीयत के शख्स हैं और दीगर लोगोंसे मुख्तलिफ भी.
जवाब देंहटाएं" दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ खरीदार नहीं हूँ. "
उम्दा सोच और इजहारेखयाल !
मुर्दा हुए लोगों की बस्ती में,
जवाब देंहटाएंआज तल्क ज़िंदा क्यों हूँ.
aham bhaw
विशाल जी.....बस ऐसी ही पोस्ट की उम्मीद होती है आपके ब्लॉग से........शानदार , बेहतरीन ......बहुत पसंद आई पोस्ट|
जवाब देंहटाएंजब सिर्फ़ पढ़ते हैं ज़ेहन वाले,
जवाब देंहटाएंमैं दिल से लिखता क्यों हूँ,
तमाशबीनों की भीड़ में ,
मैं ही तमाशा क्यों हूँ,
अजी सबको यही लगता है कि वो ही तमाशा बने हुए हैं ... :):)
मन के द्वंद को अभिव्यक्त करती रचना
khoobsurat kavita...
जवाब देंहटाएंपुती दीवारें हैं हर तरफ़,
जवाब देंहटाएंमैं खाली झरोखा क्यों हूँ,
सभी तकते हैं जमीं को,
मैं आसमां तकता क्यों हूँ,
जीवन्त विचारों की बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना !
आशा और निराशा के बीच ...डगमगाते मन की खूबसूरत प्रस्तुति ..........आभार
जवाब देंहटाएंअंतर्द्वंद को अभिव्यक्त करती मर्मस्पर्शी रचना..........
जवाब देंहटाएंbeautiful composition ..
जवाब देंहटाएंand brilliantly depicting the state of a person who thinks lil offbeat !!
यह पागल पाने की हालत में नहीं ज्ञानोदय की अवस्था में पूछे जाने वाले प्रश्न हैं.. ये दोनों परस्पर विरोधी दिखने वाली अवस्थाएं वास्तव में एक दूसरे की उपस्थिति सिद्ध करती है!! दार्शनिक प्रश्न!!
जवाब देंहटाएंऐसे सवालात ही ज़िंदगी का मजा देते हैं
जवाब देंहटाएंपत्थरों के शहर में फूल खिला देते हैं.
जज्बातों की खूबसूरती - काबिलेतारीफ
विशाल जी ,
जवाब देंहटाएंये पागल सवालात ही तो जीवन्तता की निशानी हैं .... बहुत अच्छा लगा पढ़ना ..
मन में उठती हुई विचारों का अच्छा विश्लेषण
जवाब देंहटाएंतमाशबीनों की भीड़ में ,
जवाब देंहटाएंमैं ही तमाशा क्यों हूँ,
मुर्दा हुए लोगों की बस्ती में,
आज तल्क ज़िंदा क्यों हूँ.
सही कहा आपने .......
दुनिया खतरनाक है , उन लोगों की वजह से नहीं जो इसे नुकसान पहुंचाते हैं , उन लोगों के चलते जो चुप बैठे रहते हैं।
आपकी विशालता है जो सब होते हैं वे आप नहीं. उत्तम रचना .
जवाब देंहटाएंLoved it :)
जवाब देंहटाएंआपकी प्रवि्ष्टी की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल उद्देश्य से दी जा रही है!
बहुत ही बढ़िया...
जवाब देंहटाएंतमाशबीनों की भीड़ में
मैं ही तमाशा क्यों हूँ
मुर्दा हुए लोगों की बस्ती में
आज तल्क ज़िंदा क्यों हूँ