01 सितंबर 2011

ग़म


गमे दौरां,
गमे जानां, 
गमे खालक,
गमे खुद,
हर सू 
गम ही गम है,
हर गम में 
तू शामिल,
क्यों न गम में ,
रहूँ खुश .

17 टिप्‍पणियां:

  1. इस गम पर कुर्बान होने को दिल चाहता है....शुक्रिया.

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  2. गम को मुँह चिढाने से ही वह चिढकर भाग जाता है!!
    कहाँ रहे इतने दिनों तक??

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  3. अंतस को झकझोरती हुई बेहतरीन रचना

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  4. ये क्या हो गया है आपको विशाल भाई.
    किसकी नजर लगी है जो गम में ही रमने लगें हैं आप.
    हमें भी ग़मगीन कर रहें हैं.

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  5. "क्यों न गम में,
    रहूँ खुश"

    गम को भगाने का कारगर उपाय - सुंदर

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  6. हर गम में
    तू शामिल,
    क्यों न गम में ,
    रहूँ खुश .
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  7. जिस ग़म को ताल्लुक हो तुझ से, वो रास नहीं और रास भी है.............!
    hats off !

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  8. क्यूँ न रहूँ गम में खुश...............बहुत सुन्दर ...........पर विशाल जी...कहना आसान होता है पर गम में खुश रहना बहुत मुश्किल है|

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  9. गम में ही ख़ुशी का मायने पता चलता है.बहुत सुन्दर

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मंजिल न दे ,चिराग न दे , हौसला तो दे.
तिनके का ही सही, मगर आसरा तो दे.
मैंने ये कब कहा कि मेरे हक में हो जबाब
लेकिन खामोश क्यों है कोई फैसला तो दे.