15 अक्तूबर 2011

चिराग मुयस्सर नहीं घर के लिए

                                                      श्री प्रेम पखरोलवी
              {श्री प्रेम पखरोलवी जी का 1993 -94 की दीपावली के उपलक्ष्य में लिखा गया निबंध आज के दौर में कितना सार्थक है ,ज़रा देखिये. }           
         अन्धेरा और भटकाव,इनमें एक समीकरण मौजूद है.दोनों एक दुसरे के तई पर्यायवाची हैं.जुड़े हैं आपस में.मगर अँधेरे एवं उजाले में अंतर है.वह यह कि उजाला हर चीज़ को एक रूप ,एक आकार देता है.मगर अन्धेरा हर चीज़ को अपनी चादर में ढक लेता है .उजाला आँखों को देखने की शक्ति प्रदान करता है,अन्धेरा उस क्षमता को छीन लेता है.उजाले में हम भिन्न भिन्न चीज़ों में भेद कर सकते हैं तथा विवेक से काम लेते हुए अपना मार्ग चुन लेते हैं.मगर अँधेरे में हालत कुछ यों होती है कि...
                                       "पाँव रखता हूँ कहीं और कहीं पड़ता है."     
          ठोकरें उजाले में भी लग सकती है.तथापि रौशनी में डर नहीं लगता....घबराहट नहीं होती और सबसे बड़ी बात यह है कि इंसान भटकता नहीं.
         मगर सवाल यह है कि अन्धेरा कब होता है?तब,जब उजाला नहीं रहता.घूम रही धरती का जो भाग सूर्य के सामने होता है,वहां उजाला रहता है.और जब वही भाग सूर्य के सामने से सरक जाता है और उजाला नहीं रहता,तो हम कहते हैं रात हो गयी.दिन और रात का यह चक्र इसी तरह चलता रहता है.शायर खुलासा करता है..
                                            "सुबह होती है शाम होती है,
                                              उम्र यों ही तमाम होती है."  
               मगर इंसान हमेशा से उजाले का शैदाई रहा है.रात के अँधेरे को मिटाने के लिए उसने चिराग जलाना सीखा.चिराग और रौशनी आज भी सजगता अथवा ज्ञान का प्रतीक माने जाते हैं.हम जाग रहे होते हैं तो उजाला चाहते हैं.मगर सोते ही बत्तियां गुल कर देते हैं..सोते में रौशनी पसंद नहीं करते.
             महज़ वस्तु जगत में ही नहीं है अँधेरे उजाले का यह  सनातन खेल.इसके कतिपय सामाजिक एवं सांकृतिक पहलु भी हैं.लोक मानस में अन्धकार न छा जाए.,एतदर्थ महापुरुष जीवन मूल्यों एवं ऊंचे ऊंचे आदर्शों की शम्में जलाते आये हैं.वे चिराग जब तक जगमगाते रहते हैं,समाज में रीति नीति कायम रहती है.मगर जब जब ये चिराग बुझते हैं,समाज में मानसिक अन्धकार एवं धार्मिक पतन अन्धकार बन कर छाने लगता है.अनाचार एवं व्यभिचार के पिशाच खुले बन्दों की तरह घूमने लगते हैं.कुरीतियाँ फैलती हैं तथा पूरा माहौल दूषित हो जाता है.फिर सामाजिक संतुलन बिगड़ जाता है.बड़ों बड़ों का मनोबल गिरने या टूटने लगता है.हम सब भटकाव की दशा में आ जाते हैं...                                   
                                                "आप यह सोचते रहिये की जुबां कुछ  न कहे,
                                                  और चेहरा है कि सच्चाई उगल देता है"
              जी हाँ, आपकी सोच ही आपके आचरण की नींव होती है.अँधेरे और उजाले के इस द्वंद्व का शिकार वैदिक ऋषि भी रहा होगा, जब उसने कहा-"तमसो मा ज्योतिर्गमय ". हे परमपिता परमात्मा अन्धकार के गर्त से निकालकर मुझे प्रकाश के मंच पर ला.
                प्रकाश होने पर ज्ञान या विवेक रहने से अच्छे या भले तथा बुरे में तमीज की जा सकती है.आज जो जीवन में यह भ्रष्टाचार तथा थोथा आडम्बर भर गया है,उसका कारण है जीवन मूल्यों में गिरावट.आवश्यकता है निज सोच के दीप को हम फिर से नयी बाटी और ताज़ा शुद्ध  तेल मुहैया करायें और इसकी तेज़ लौ में अपने भीतर के अँधेरे को दूर करें.और बकौल शायर इस रहस्य को समझें....
                                                 "घोर अन्धेरा रात का,दिन में चढ़ती धुप,
                                                   शासक गायक नर्तकी,इनके रूप अनूप."
          अबके जो दीप जगे...इस बार जो चिराग हो या कहें दीपावली मने तो एक संकल्प सुदृढ़ या मजबूत बने कि हम चौतरफा भ्रष्टाचार ,अनाचार एवं तमाम आर्थिक घोटालों के अन्धकार को मिटा के रहेंगे...प्रतिभूति के घपलों पर पडी तम की काली चादर को चीर डालेंगे....समाज ,धर्म ,राजनीति और आम ज़िन्दगी में व्याप्त सघन अन्धकार के मक्कड़ जालों को उखाड़ फेंकेगें .
               यह प्रण ,यह तम्मना ,यह दुआ समग्र समाज की आवाज़ बनकर उभरे तभी बात बनेगी,अन्यथा हर साल की दीवाली की भांति एक और दीवाली के महूरत में से होकर गुजर जायेंगे....क्षण भर को चिराग भी होगा....पर दिलों में से अन्धकार दूर न होगा और शायर यह कह कर चुप हो जाएगा कि
                                                  "कहाँ तो तय था चिरागां शहर भर के लिए,
                                                    कहाँ चिराग मुयस्सर नहीं घर के लिए."

18 टिप्‍पणियां:

  1. उजाला आँखों को देखने की शक्ति प्रदान करता है,अन्धेरा उस क्षमता को छीन लेता है
    अँधेरे और उजाले को भिन्न - भिन्न सन्दर्भों में प्रयोग करते उसे सम्यक स्थितियों से जोड़कर देखने का यह प्रयास अद्भुत है ......श्री प्रेम पखरोलवी जी के इस प्रासंगिक निबंध को हम सब के साथ साँझा करने के लिए आपका आभार ..!

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  2. आदरणीय केवल जी,
    बहुत आभार आपका इस ललित निबंध को आपकी सराहना मिली.मेरा प्रयास सार्थक रहा.शुक्रिया आपका.
    पखरोलवी जी की कलम जितना ज्ञान वर्धन करती है उतनी ही रोचक भी है.

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  3. पख्रोलावी जी का यह आलेख मात्र एक पर्व विशेष पर की गयी कमेंटरी नहीं..यह एक जीवन दर्शन है!! प्रेरक!!

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  4. सार्थक लेख....!!
    जीवन दर्शन के लिये प्रेरक प्रसंग.....!!

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  5. जीवन का पूरा दर्शन समाया है इस प्रवचन में.

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  6. अच्छा सार्थक लेख ...बहुत जरूरी संदेश और दुआ है इसमें ...

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  7. बहुत सुन्दर , सार्थक प्रस्तुति,आभार.

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें .

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  8. यह आलेख बहुत अच्छा लगा - विचार और विन्यास दोनों ही दृष्टियों से। आभार!

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  9. जीवन का पूरा दर्शन समाया है..बहुत सुन्दर सार्थक प्रस्तुति,आभार.

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  10. अन्धकार को समझने के लिए ,उससे बाहर निकलने के लिए हमारे सनातन परम्परा में आत्म-जागृति पर बल दिया गया है. आत्म- विवेचन व शुद्धिकरण को अनिवार्य कहा गया है. ज्ञान का सदुपयोग करने पर अन्धकार स्वयं हटने लगता है. पर हमारे सन्दर्भ में ..किसको पड़ी है.. आप दीप हो..

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  11. बहुत ही खुबसूरत रचना ...
    भरपूर जीवन दर्शन ....

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  12. सुन्दर आलेख है....साझा करने का शुक्रिया.......जहाँ तक मुझे लगता है 'मयस्सर' सही लफ्ज़ है......और हाँ विशाल जी 'पूनम' जी ने अपने ब्लॉग 'बस यूँ ही' पर हम दोनों को समर्पित एक पोस्ट लिखी है समय मिले तो ज़रूर पढ़ें|

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  13. " कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
    कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए "

    दुष्यंत की यह पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक प्रतीत होती हैं , और निहित विरोधाभास
    दिवाली के समय और मुखर हो उठता है .
    प्रस्तुति के लिए बधाई !

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  14. "अबके जो दीप जगे...इस बार जो चिराग हो या कहें दीपावली मने तो एक संकल्प सुदृढ़ या मजबूत बने कि हम चौतरफा भ्रष्टाचार ,अनाचार एवं तमाम...
    जीवन दर्शन के साथ-साथ महत्वपूर्ण सन्देश है इस आलेख में ... शुभकामनाये...

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  15. @इमरान भाई ,
    @आर. के.
    पखरोलवी जी की पुस्तक में जैसा मैंने पढ़ा था उसकी ही नक़ल की है मैंने.
    कुछ भी नहीं बदला .
    गलत और सही पर नज़र नहीं गयी.
    बस भाव ही देखे हैं.
    मुझे मुआफ कीजिएगा.
    कुछ नहीं बदल पाऊंगा.

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  16. बहुत सुन्दर सन्देशपरक प्रवचन।

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  17. विशाल जी, पहली बार आपके ब्लॉग पर कोई आलेख पढ़ा...जितनी अच्छी ग़ज़लें लिखते हैं आलेख भी उतना ही अच्छा है....और सिर्फ एक दीपावली नामक पर्व के लिए न होकर पूरे जीवन के लिए है...पढ़कर तो पूरा आलेख ही प्रेरणा मिली पर निम्न पंक्तियों ने मन की सारी उदासियों और निराशाओं को झंझोड़ डाला..' मगर इंसान हमेशा से उजाले का शैदाई रहा है, रात के अँधेरे को मिटाने के लिए उसने चिराग जलाना सीखा'........ख़ासतौर से इस एक पंक्ति के लिए धन्यवाद...

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मंजिल न दे ,चिराग न दे , हौसला तो दे.
तिनके का ही सही, मगर आसरा तो दे.
मैंने ये कब कहा कि मेरे हक में हो जबाब
लेकिन खामोश क्यों है कोई फैसला तो दे.