08 फ़रवरी 2011

स्वयंनामा-1


याद   
बसन्ती रातों की सर्दी में 
नींद नहीं जब आती है
रात के पिछले पहर में उठ कर 
अधखिले चाँद के पीछे
तेरा चेहरा ढूंढता हूँ मैं.

चाह
तूने भेजा है गुलाब
रंगीन कागज़ में लिपटा हुआ
सुनहरी  रिबन में बंधा 
पर मैं चाहता हूँ
तू मेरे आँगन में
उगा इक फूल,इक पौदा 
चाहे कैक्टस  ही क्यों न हो 

लकीरें
झील में उतर आये
चाँद को 
अंजलि  में भर लिया था मैंने 
पर अधरों तक
पहुँचने  से पहले 
रिस गया  बूँद बूँद 
वक्त की रेत में 
दफ़न हो गया  कहीं
देखता हूँ 
मेरे गीले हाथों की लकीरें 
और गहरी हो गयी हैं.
 

38 टिप्‍पणियां:

  1. तीनों ही क्षणिकाएं बहुत सुंदर ...... 'याद ' खास अच्छी लगी
    बसंतोत्सव की शुभकामनाये

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  2. सगेबोब जी ,तीनो कविताए बेहद खूब सुरत हे --इसी तरह लिखते रहे --हमारी शुभ कामनाए हमेशा आप के साथ रहेगी -'-मेरी प्यारी माँ' पर भी मेरी कविताए पढ़ सकते हो|

    बसन्ती रातों की सर्दी में
    नींद नहीं जब आती है
    रात के पिछले पहर में उठ कर
    अधखिले चाँद के पीछे
    तेरा चेहरा ढूंढता हूँ मैं.

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत खुब। सारी क्षणिकाएॅ सुन्दर है पर तीसरी सबसे ज्यादा पसंद आई।

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  4. क्षणिकाएँ सभी प्यारी हैं पर 'चाह' सबसे अधिक अच्छी लगी...

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  5. बहुत खुसुरत क्षणिकाएं ! कोमल एहसास पिरोये हैं।

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  6. झील में उतर आये
    चाँद को
    अंजलि में भर लिया था मैंने
    पर अधरों तक
    पहुँचने से पहले
    रिस गया बूँद बूँद


    बहुत सुंदर ..एक से बढ़ कर एक ...आपका आभार

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  7. bohot pyaari hain sabhi....beautiful thoughts :)

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  8. • क्षणिकाएं जीवन के खास संदर्भों को उजागर करने का सयास रूपक है, जीवन के खाली कैनवास पर विरल चित्रांकन!!
    बिम्बों का उत्तम प्रयोग।

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  9. खुबसूरत एहसासों से सजी कविता !

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  10. खूबसूरत क्षणिकाएं, तीनो ही बेहतरीन हैं !

    आभार !!

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  11. हाथों की गहरी लकीरों में से झांकता तकदीर सा इक चेहरा चांद का.

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  12. बहुत सुंदर एक से बढ़ कर एक| आभार|

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  13. चाँद......
    रिस गया बूँद बूँद
    वक्त की रेत में
    दफ़न हो गया कहीं
    बहुत खूब,
    बधाई और शुभकामनाएँ

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  14. सुन्दर कविता, अपने प्रोफ़ेशन से बिल्कुल अलग सोच.

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  15. झील में उतर आये
    चाँद को
    अंजलि में भर लिया था मैंने
    पर अधरों तक
    पहुँचने से पहले
    रिस गया बूँद बूँद
    वक्त की रेत में
    दफ़न हो गया कहीं
    देखता हूँ
    मेरे गीले हाथों की लकीरें
    और गहरी हो गयी हैं.

    लाजवाब .....!!

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  16. इतने कोमल एहसासात को समेटे हैं तीनों कविताएँ कि डर लगता है हाथ लगाने से भी.. कहीं बिखर न जाएँ!!

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  17. namaskaar ji....
    blog pe aane ke liye shukriyaa main to aapka follower ban gaya hoon...

    रात के पिछले पहर में उठ कर
    अधखिले चाँद के पीछे
    तेरा चेहरा ढूंढता हूँ मैं.

    seedhe dil se nikli aawaaz hai sir ji...

    aafareen....aafareen....aafareen!

    जवाब देंहटाएं
  18. सुन्दर कविता
    आपका शुक्रिया....

    जवाब देंहटाएं
  19. तीनो क्षणिकाएं बहुत सुन्दर हैं...चाह खासकर पसंद आई.

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  20. क्षणिकाएं बहुत सुन्दर हैं, पसंद आई.......

    जवाब देंहटाएं
  21. पर अधरों तक
    पहुँचने से पहले
    रिस गया बूँद बूँद
    वक्त की रेत में
    दफ़न हो गया कहीं
    देखता हूँ
    मेरे गीले हाथों की लकीरें
    और गहरी हो गयी हैं.

    इस कविता के साथ काव्य की ये भावना और भी निखर गयी...
    बधाइयाँ..

    '''............


    मंजिल न दे ,चिराग न दे , हौसला तो दे.
    तिनके का ही सही, मगर आसरा तो दे.

    मैंने ये कब कहा की मेरे हक में हो जबाब
    लेकिन खामोश क्यों है कोई फैसला तो दे..

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  22. खूबसूरत अहसासों को पिरोती हुई सुंदर भावप्रवण रचनाएं. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

    जवाब देंहटाएं
  23. रात के पिछले पहर में उठ कर
    अधखिले चाँद के पीछे
    तेरा चेहरा ढूंढता हूँ मैं.

    तीनो ही बेहतरीन हैं !

    आभार !!

    जवाब देंहटाएं
  24. तूने भेजा है गुलाब
    रंगीन कागज़ में लिपटा हुआ
    सुनहरी रिबन में बंधा
    पर मैं चाहता हूँ
    तू मेरे आँगन में
    उगा इक फूल,इक पौधा
    चाहे कैक्टस ही क्यों न हो

    वाह, सुंदर चाहत।
    शायद यही चाहत की इंतिहा है।
    आपकी खूबसूरत कविताओं ने मन मोह लिया।

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  25. bahut sunder rachnaye par mujhe tisari rachna
    bahut sunder lagi...

    जवाब देंहटाएं
  26. वाह आपकी तो तीनों ही रचनाएं बहुत सुंदर हैं जी.

    जवाब देंहटाएं
  27. एक से बढ़ कर एक ..पसंद आई..

    जवाब देंहटाएं
  28. देखन में छोटे लगैं

    घाव करैं गम्भीर
    वाह वाह


    डॉ. दिव्या श्रीवास्तव ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर किया पौधारोपण
    डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर तुलसी एवं गुलाब का रोपण किया है। उनका यह महत्त्वपूर्ण योगदान उनके प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता एवं समर्पण को दर्शाता है। वे एक सक्रिय ब्लॉग लेखिका, एक डॉक्टर, के साथ- साथ प्रकृति-संरक्षण के पुनीत कार्य के प्रति भी समर्पित हैं।
    “वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर” एवं पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से दिव्या जी एवं समीर जीको स्वाभिमान, सुख, शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के पञ्चामृत से पूरित मधुर एवं प्रेममय वैवाहिक जीवन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।

    आप भी इस पावन कार्य में अपना सहयोग दें।
    http://vriksharopan.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

    जवाब देंहटाएं
  29. तीनों ही रचनाएं बहुत सुंदर हैं.

    जवाब देंहटाएं
  30. "झील में उतर आये
    चाँद को
    अंजलि में भर लिया था मैंने
    पर अधरों तक
    पहुँचने से पहले
    रिस गया बूँद बूँद
    वक्त की रेत में
    दफ़न हो गया कहीं
    देखता हूँ
    मेरे गीले हाथों की लकीरें
    और गहरी हो गयी हैं."

    बहुत खूब....
    दिल को छूती हुई....

    जवाब देंहटाएं

मंजिल न दे ,चिराग न दे , हौसला तो दे.
तिनके का ही सही, मगर आसरा तो दे.
मैंने ये कब कहा कि मेरे हक में हो जबाब
लेकिन खामोश क्यों है कोई फैसला तो दे.