20 नवंबर 2011

कांच के शरीर

मेरे स्वर्गीय  पिता जी श्री नसीब चेतन जी की पुस्तक "कोरे कागज़" (1973) में से एक नज़्म पेशे खिदमत है.मेरे अज़ीज़ दोस्त डॉक्टर सतनाम सिंह  जी ने मेरे अनुरोध पर इस पुस्तक की एक प्रति  पंजाबी university ,पटियाला के पुस्तकालय से मुझे उपलब्ध करवाई है.मेरे पिता जी की यह तस्वीर इमरोज़ जी द्वारा बनाई गयी है.




                            

कांच के शरीर ..........श्री नसीब चेतन 



         मैं तो हूँ एक परवाना
         किसी मद्धिम सी लौ में        
                                                         मैं जलना चाहूँ 
 
                                                         मगर जिस घर जाऊं
                                                         लौ नहीं मिलती
                                                         जलते हैं बस 
                                                         तेज़  रौशनी के बल्ब 
                                                         जिनके कांच के शरीरों के साथ 
                                                         मैं टकरा तो सकता हूँ 
                                                         पर जल नहीं सकता
                                                         जी नहीं सकता
                                                         मर नहीं सकता




20 टिप्‍पणियां:

  1. विशाल जी, उत्सुकता का सैलाब उमड़ आया है , पूज्य पिता जी के विषय में और जानने के लिए. इतना अच्छा लिखा करते थे वो.

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  2. यह कांच बल्ब........ क्या बिम्ब है ...एक पूरा जीवन दर्शन समाहित कर दिया ...शुक्रिया आपका इस उत्तम रचना को साँझा करने के लिए .....!

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  3. कविता सुन्दरतम है बधाई

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  4. जिनके कांच के शरीरों के साथ
    मैं टकरा तो सकता हूँ
    पर जल नहीं सकता.....

    वाह!! क्या ही बिम्ब है और कितना गहरा संकेत.... वाह!!
    बहुत ही गहरी रचना....
    आदरणीय विशाल जी आद.पिताजी की रचनाओं को साहित्य प्रेमी पाठकों के लिये निरंतर प्रकाशित करने का उद्द्यम करें मित्र.... अच्छा होगा...
    सादर...

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  5. जीवन के बदलाव को ... भावनाओं के साथ मिला कर ... गहरी बात कह डी है चंद शब्दों में ...
    उनकी और कृतियों को भी यहाँ लिखेंगे तो बहुत अच्छा लगेगा ...

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  6. कम शब्दों में समय के बदलाव को कहती बेहद सुंदर रचना ...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  7. विशाल जी अद्भुत रचना है यह.. और इसे पढ़ने के बाद समझ सकता हूँ कि आपकी कविताओं में वो कशिश कहाँ से आती होगी.. निश्चय ही यह उनके आशीष का परिणाम है!! पूज्य पिताजी के चरणों में सादर नमन!!

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  8. बेहतरीन रचना
    और क्या कहू सब कुछ तो सलिल जी ने कह ही दिया है
    आभार

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  9. Where is my comment Vishal Ji?

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  10. सुभानाल्लाह.......बेहतरीन........बदलते हुए परिवेश में लिखी गयी ये नज़्म शानदार है......आपके पिता जी बेहतरीन फनकार हैं ......हमारा सलाम उनको ||

    IMRAN ANSARI

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  11. जलते हैं बस
    तेज़ रौशनी के बल्ब
    जिनके कांच के शरीरों के साथ
    मैं टकरा तो सकता हूँ
    khoobsoorat.....


    ....POONAM....

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  12. विशाल भाई,
    और भी नज्में डालिये ब्लॉग पर, बहुत कशिश है इन शब्दों में।

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  13. Now I know, shayari or poetry runs in the blood. Shall be waiting for more such valuable nuggets !

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  14. पिता श्री को सादर नमन.
    बहुत प्रसन्नता मिली उनकी इस सुन्दर रचना को पढकर.
    अनुपम भावों से यह प्रस्तुति चेतन हो गई है.
    देरी से टिपण्णी देने के लिए क्षमा कीजियेगा,विशाल भाई.

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मंजिल न दे ,चिराग न दे , हौसला तो दे.
तिनके का ही सही, मगर आसरा तो दे.
मैंने ये कब कहा कि मेरे हक में हो जबाब
लेकिन खामोश क्यों है कोई फैसला तो दे.